हमारी ज़िन्दगी में सवालों से सामना इतनी बार होता है कि कई बार तो लगता है जैसे सवालों के हल तलाशना ही ज़िन्दगी है। यानि किसी ने सच ही कहा है के ज़िन्दगी एक इम्तिहान है। सवालों के जवाब हमेशा ढूँढते रहना पड़ता है।
मुझे तो बल्कि यूँ लगता है कि समय की बेहद चौड़ी नदी में जमी बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं सवाल। बस एक जवाब ढूंढिए तो एक चट्टान से सवालों की दूसरी चट्टान पर जा कूदते हैं और इस तरह नदी पार हो जाती है।
और जो सवालों के जवाब नहीं ढूंढ पाता वो? क्या वो नदी पार नहीं कर पाता ? तो इसका जवाब है - नहीं। वो सिर्फ सवालों की उस किसी एक चट्टान से फिसल जाता है। समय के दरिया का तेज़ बहाव उसे ले जाता है न जाने कहाँ तक, और किसी एक लमहे में झटके से किनारे फेंक देता है। तो यह भी भला कोई नदी पार करना हुआ?
लेकिन यह भी सही है हर सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता। शायद समय के पास भी नहीं होता होगा जवाब हर सवाल का। शायद तभी कुछ सवालों की चट्टानें समय की नदी को अपना रुख बदलने को मजबूर कर देती होंगी। शायद तभी मनुष्य जिसे अशरफ़-उल-मख्लूक़ात यानि सृष्टि का सिरमौर कहा गया है - को अपनी हदें समझ में आती होंगी।
अगर सवाल चट्टानें न होकर कोई जीती-जागती शै होते? तो हर तरफ़ कितना शोर बरपा होता, और जवाब मिलने पर किसी सवाल को मायूसी मिलती या तसल्ली? मायूसी होने पर वो मर जाता, लेकिन तसल्ली होने पर होने वाली मौत की भला बात ही क्या होती !
और जो प्रश्न रह जाता है अनुत्तरित, होता अगर वो एक जीती-जागती हस्ती, तो भला क्या गुज़रती उस पर और किस तरह कसमसाता, बस बरस-दर-बरस बरस जाने को तरसता हरस जाने को बेचैन रहता - शिकस्ता। जवाब की तलाश में, इंतज़ार में जागा रहता सवाल, हमेशा कराहता कि जैसे दुश्मन देश का कोई क़ैदी हो किसी जेल के सेल में।
कैसी हैरानी की बात है कि ज़िन्दगी हमारी है लबरेज़ उन्हीं सवालों से के जिनके जवाब नहीं हमारे पास या अगर हैं तो हम उनसे बचते-बचाते, मुंह छिपाते, डूबते-उतराते, भँवर में फँसते-फँसाते, किसी तरह पार करते हैं फ़ासला उम्र का - दरिया-ए-वक़्त।
मुझे तो बल्कि यूँ लगता है कि समय की बेहद चौड़ी नदी में जमी बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं सवाल। बस एक जवाब ढूंढिए तो एक चट्टान से सवालों की दूसरी चट्टान पर जा कूदते हैं और इस तरह नदी पार हो जाती है।
और जो सवालों के जवाब नहीं ढूंढ पाता वो? क्या वो नदी पार नहीं कर पाता ? तो इसका जवाब है - नहीं। वो सिर्फ सवालों की उस किसी एक चट्टान से फिसल जाता है। समय के दरिया का तेज़ बहाव उसे ले जाता है न जाने कहाँ तक, और किसी एक लमहे में झटके से किनारे फेंक देता है। तो यह भी भला कोई नदी पार करना हुआ?
लेकिन यह भी सही है हर सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता। शायद समय के पास भी नहीं होता होगा जवाब हर सवाल का। शायद तभी कुछ सवालों की चट्टानें समय की नदी को अपना रुख बदलने को मजबूर कर देती होंगी। शायद तभी मनुष्य जिसे अशरफ़-उल-मख्लूक़ात यानि सृष्टि का सिरमौर कहा गया है - को अपनी हदें समझ में आती होंगी।
अगर सवाल चट्टानें न होकर कोई जीती-जागती शै होते? तो हर तरफ़ कितना शोर बरपा होता, और जवाब मिलने पर किसी सवाल को मायूसी मिलती या तसल्ली? मायूसी होने पर वो मर जाता, लेकिन तसल्ली होने पर होने वाली मौत की भला बात ही क्या होती !
और जो प्रश्न रह जाता है अनुत्तरित, होता अगर वो एक जीती-जागती हस्ती, तो भला क्या गुज़रती उस पर और किस तरह कसमसाता, बस बरस-दर-बरस बरस जाने को तरसता हरस जाने को बेचैन रहता - शिकस्ता। जवाब की तलाश में, इंतज़ार में जागा रहता सवाल, हमेशा कराहता कि जैसे दुश्मन देश का कोई क़ैदी हो किसी जेल के सेल में।
कैसी हैरानी की बात है कि ज़िन्दगी हमारी है लबरेज़ उन्हीं सवालों से के जिनके जवाब नहीं हमारे पास या अगर हैं तो हम उनसे बचते-बचाते, मुंह छिपाते, डूबते-उतराते, भँवर में फँसते-फँसाते, किसी तरह पार करते हैं फ़ासला उम्र का - दरिया-ए-वक़्त।