शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

बेक़रारी

24 फरवरी 2013
 
न जाने ऐसा क्यूं है कि हम हमेशा बेचैन रहते हैं, बेकरार रहते हैं। अक्सर हमें मालूम होता है कि हमारी बेक़रारी की, हमारी बेचैनी की वजह क्या है। हमें लगता है कि हमारी बेचैनी उस वजह के ख़त्म होने से या उस ज़रुरत को या मंजिल को पा लेने से ख़त्म हो जाएगे मगर हम जानते हैं फिर से हम बेकरार हो उठते हैं। कुछ और हसरतें कुछ और चाहतें सिर उठाने लगती हैं और बेक़रारी हम पे तारी होती जाती है।

इस बेचैनी, इस बेक़रारी का आलम हर वक़्त क्यों बना रहता है क्या कभी इसकी वजह ढूँढने की फुर्सत मिली है आपको?

जो बेचैन रूहें अभी भी जिस्मों की हदों में क़ैद करवट बदल रही हों और नींद जिन जिस्मों से अभी भी कोसों दूर हो, या यूं कहें कि जिन्हें सोने से पहले अख्तर-ए -सहर को या सुबह  के तारे को देख लेने की चाह हो - उनको कहीं-न-कहीं एहसासात की गहराइयों में यह इल्म ज़रूर होगा कि ये बेक़रारी दरअसल उस महबूब से मिलने की है जिससे जुदा हुए एक उम्र गुज़र चुकी है।

अगर कोई रहबर मिल जाता तो उस राह का मुसाफिर बना देता हमें, उसका पता देता हमें और हम चलते जाते, जलते जाते, इस तरह यह बेक़रारी ख़त्म हो जाती।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013


जिस तरह चवन्नी और अठन्नी इतिहास बन चुकी हैं उसी तरह कुछ और सिक्के भी जो किसी जमाने में किसी सदी में कभी चला करते थे ज़ाहिर है नहीं रहे। आप खोजने जाइएगा तो कई किताबें भी कम पड़ेंगी। सोचा, थोड़ा-बहुत ही सही अपने दोस्तो को कुछ सिक्कों के बारे में बताया जाए। उनके बारे में जानना कम दिलचस्प नहीं।

कौड़ियों के दाम और फूटी कौड़ी जैसे शब्दों का इस्तेमाल हम अभी तक करते हैं। इनका इस्तेमाल तब बंद हुआ जब भारत सरकार ने बहुत कम कीमत वाले सिक्कों का चलन शुरू किया था।

तांबे का एक सिक्का था दमड़ी।  बातचीत में आज भी कभी कभी उसका इस्तेमाल होता है।  एक दमड़ी 25 कौड़ियों के बराबर या एक पैसे के बराबर होती थी। और छ्दाम 2 दमड़ी के बराबर माना जाता था। यह जो दाम शब्द है न जिसका इस्तेमाल हम आजकल कीमत के मानी में करते हैं। वो दमड़ी से भी छोटा था। यानि एक दमड़ी 3 दाम के बराबर थी। यह दाम शब्द सम्राट अकबर के समय में आया जिन्होंने बहलोली नामक एक सिक्के का नाम बदलकर दाम कर दिया था। हालांकि उस समय दाम के दम कुछ और ही रहा होगा। एक बहलोली का वज़न 1 तोला 8 माशा और 7 रत्ती होता था।

मुसलमानों के भारत में प्रथम आगमन के समय भारत में दिल्लीवाल नामक सिक्के का अधिक प्रचार था।      

यह जो रुपया शब्द है – कहते हैं इसका प्रचार सम्राट शेरशाह के समय से हुआ है।  

स्कॉटलैंड में एक छोटा-सा गाँव है पटना। इस पटना से बहकर भी एक नदी निकलती है जिसका नाम है दून नदी। इस नदी पर स्कॉटलैंड के प्रख्यात कवि राबर्ट बर्न्स ने 1791 में एक कविता लिखी थी जिसे आज भी गीत की तरह गया जाता है।  इस गाँव को ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय पटना में तैनात एक सेना अधिकारी के बेटे विलियम फुलटर्न ने खदान मजदूरों के लिए 1802 में बसाया था।
पटना प्राइमरी स्कूल के बच्चे भारत के पटना को जानते हैं। स्कूल में उन्हें दोनों पटना के संबंध में बताया जाता है।

तो अब और क्या कहें।  इस बार गर्मी की छुट्टियों में पटना घूमने का प्लान बनाइये।

अक्सर देखा जाता है कि घरों में टॉइलेट को सबसे कम अहमियत दी जाती है। इसकी अहमियत उन लोगों से पूछिए जिनके घरों में अभी भी शौचालय नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक खराब शौचालयों की वजह से बढ्ने वाली गंदगी के कारण विकासशील देशों में बड़ी गिनती में लोग बीमार पड़ते हैं। यह लोगो अक्सर वो होते हैं जो शायद किसी गिनती में ही न आते हों। संयुक्त राष्ट्र संघ का यह भी आकलन है कि इसकी वजह से हर साल लगभग 15 लाख बच्चों की मौत हो जाती है।

इसलिए कुछ लोगों ने न सिर्फ साफ सुथरे टॉइलेट की अहमियत को समझा है बल्कि हर चीज़ को खूबसूरत बनाने की अपनी आदत के मुताबिक टॉइलेट को भी एक कला में तब्दील कर दिया है।

अब देखिये न पश्चिम में तो एक ऐसा शौचालय बना दिया गया है जहां माइक्रोवेव ऊर्जा की मदद से मल को बिजली में तब्दील किया जा सके।

कभी समय मिले तो दिल्ली की पालम–डाबरी सड़क पर महावीर एंक्लेव के सुलभ इंटरनेशनल टॉइलेट म्यूज़ियम जाइए। आपको कई फ़ैन्सी आकार के टॉइलेट दिखेंगे कि आप कहेंगे वाह!  यहाँ टॉइलेट की विकास यात्रा के बारे में भी जान सकते हैं। यह यात्रा शुरू होती है ईसा से ढाई हज़ार साल पहले से और आधुनिक तकनीकी युग में आ धमकती है पूरे ज़ोर-शोर से।

चित्त रंजन पक्रषी यह नाम है एक ऐसे कलाकार का जो जीवन के 92 वसंत देख चुका है और जिसने पिछले पचास से भी ज़्यादा वर्षों के दौरान डाक टिकटों के डिज़ाइन बनाए हैं।

डाक टिकटों को इकट्ठा करने के शौक अब भी बहुतों को है। लेकिन हम अक्सर उसे बनाने वाले उसकी परिकल्पना करने वाले आर्टिस्ट के बारे में नहीं जानते।  चित्त रंजन पक्रषी ने भारत के लिए ही नहीं बल्कि कुछ और देशों के लिए भी यादगारी डाक टिकिट डिज़ाइन किए हैं। उन्होने अपनी पहली डाक टिकिट 1956 में बुद्ध जयंती के ढाई हज़ार वर्ष पूर्ण होने पर डिज़ाइन की थी जिसे पूरे भारतवर्ष में करवाई गई एक प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला था। उस टिकिट के लिए तब उन्हें एक हज़ार रुपए पुरस्कार स्वरूप दिये गए थे।  1973 में बांग्लादेश के प्रथम संसद अधिवेशन के मौके पर भारत की ओर से जारी एक यादगारी डाक टिकिट को भी चित्त रंजन पक्रषी ने ही डिज़ाइन किया था।

उनके द्वारा परिकल्पित डाक टिकटों की सूची काफी लंबी है। उन्होंने महात्मा गांधी के जन्म की सौंवी वर्षगाँठ पर भी यादगारी डाक टिकट डिजाईन किया था। आजकल वे लेखन भी कर रहे हैं।

कहते हैं कि एक जगह एक प्रतियोगिता हो रही थी चार्ली चैपलिन जैसा दिखने की। खुद चार्ली चैपलिन उस प्रतियोगिता में तीसरे नंबर पर आए थे।

चार्ली चैपलिन के ऐसे ही दीवानों में एक हैं बिहार के मुंगेर ज़िले के राजन कुमार।  वे मंच पर चार्ली चैपलिन की भूमिका निभाते हैं और ऐसे तीन हज़ार से भी ज़्यादा शौस में कुल 11 हज़ार घंटे मंच पर चार्ली चैपलिन की भूमिका निभाने के कारण उनका नाम लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल किया गया। वे अफ़्रो-एशियाई खेलों के लिए शुभंकर भी रहे है। कभी आल इंडिया रेडियो में युववाणी से जुड़े रहे राजन कुमार ने पश्चिम बंगाल का पुरुलिया छउ नृत्य भी सीखा है। एफ एम गोल्ड की ओर से इस खरे कलाकार को चमकते भविष्य के लिए शुभकामनाएँ।

सुनते हैं इक गीत और वापस आकर बताएँगे आपको के छत्तीसगढ़ की एक महिला फुलवासन ने अपनी और कई और महिलाओं की ज़िंदगी कैसे बदल दी।

एक गरीब परिवार में पैदा हुई फुलवासन का सपना था कि वो पढ़ लिख कर नौकरी करे। लेकिन उनके पिता अपनी खराब आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें कक्षा पाँच तक ही पढ़ा पाए। 13 साल की उम्र में ही उनका विवाह हो गया। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के सुकुलेदेहान गाँव में पति के साथ ही वह भी बकरियाँ चराने लगी। लेकिन वो यह काम करना नहीं चाहती थी। सो उन्होने जिलाधिकारी की पहल पर अपने गाँव की दस गरीब महिलाओं को जोड़ कर एक स्वयं सहायता समूह बनाया। इस कदम का विरोध उनके घर में ही शुरू हो गया और पति ने मारपीट करते हुए उन्हें घर से निकाल दिया।

दोस्तो, आज फुलवासन यादव के स्वयं सहायता समूह से दस लाख महिलाएं जुड़ चुकी हैं। फुलवासन के पति आज भी बकरियाँ चराते हैं और फुलवासन महिलाओं के विकास के लिए अपना जीवन अर्पण कर चुकी हैं। उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने पिछले वर्ष उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया।

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

पचास रूपए का पास बनाम यह माटी सभी की कहानी कहेगी


पिछले रविवार दिन में एक ज़रूरी काम से रोहिणी जाकर वापस आना था और डीटीसी का 50 रूपए का पास सुबह ही बनवा लिया था.  सच बताऊँ तो दोपहर तक पचास से ज्यादा रूपए का सफ़र तय कर भी लिया था और घर पर वापिस पहुँच भी गया था.  पर उस पास को यूज़ करनेयूज़ क्या वही पुरानी मिडल क्लास मेंटेलिटीबुरी तरह से उसका दोहन करने के चक्कर में मेट्रो नहीं ली जबकि जल्दी घर वापसी के बाद  बच्चो को भी समय देना था. पर बनवा जो रखा था पास पचास रूपए का.

कॉलेज के दिन भी याद आए जब आल रूट पास में पूरी दिल्ली नाप लेते थे. अच्छा भी लगा की दिल्ली के उस हिस्से में कम जाना या लगभग न ही जाना होता है. अब तो खैर मेट्रो की वजह से दक्षिण दिल्ली वालों को रोहिणी और द्वारका दूर नहीं लगते पर एक ज़माने में तो यह जगहें परदेस लगती थीं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है बस सन  दो हज़ार एक या दो की बात है,  एक बार जब दिल्ली विकास प्राधिकरण ने द्वारका में अपने उद्यानों का प्रबंधन दिखाने के लिए पत्रकारों का एक दौरा आयोजित किया था.  डिप्लोमा कोर्स करने के बाद भी किसी अख़बार में जगह नहीं मिल पा रही थी तो 'नेशनल हेराल्डमें बतौर ट्रेनी प्रश्रय मिला था.  अब तो नेशनल हेराल्ड भी बंद हो गया है.  उन दिनों मुझे उस दौरे की कवरेज के लिए भेजा गया था. तो द्वारका पहुंचकर विभिन्न उद्यानों को देखते हुए रास्ते में डी टी सी की एक बस देखते ही कुछ पत्रकार भाइयों ने हैरानी मिश्रित चुटकी लेते हुए कहा था कि 'अरे! वो देखो! डी टी सी की बस!'   

खैरशाम को नियान रौशनी में चमकती दिल्ली के उस हिस्से की रौनक ही निराली थी।

बसें बदल-बदल कर गया और बसें ही बदल-बदल कर आया। बीच में एक जगह ग्रामीण सेवा की टेम्पुलिया में पांच रूपए देने पड़ेबहुत खटका। जब जेब में पचास रूपए का पास हो तो ट्रेवल पर पैसे खर्चने वाला बेवक़ूफ़ ही कहलाएगा न मिडल किल्लास के हिसाब से।

एक और बस बदलते हुए रास्ते में अवंतिका नामक उपनगर में थक-हार के एक जगह जलजीरा भी पिया। उस आदमी के पास उस जल को पीने के वास्ते सिर्फ महिलाएं ही खड़ी थीं। मैंने डरते-डरते उस भाई से पूछ लिया कि वो मुझे भी जलजीरा पिलाएगा या मैं जीरे-सा मुंह ले के कहीं और जल मरूं. पर उसने मुस्कुरा कर 10 रुपल्ली झडवा लिए और पिला दिया मुझे तैरती बूंदी वाला (या शायद मुनक्के वाला) जलजीरा.

इन चिर-प्यासे नयनों के सामने
सदैव सद्यस्नात-सी फ्रेश
षोडशी रहने का बिना एक्सपायरी डेट वाला लाइसेंस धारिणी
डिज़ाईनर चप्पलें पहने आधा दर्जन चपल बालाएं
उम्रें जिनकी रहीं होंगी - कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक वाली

उस पर जलजीरा
उसमें बूंदी
धनिया
और मैं...
अजी थकान गई भाड़ में!

कुल मिला के अच्छा लगा।

कमाल है रास्ते में इतने माल और दुकाने आईं पर कोई भी खाली नहीं थी। मुझे तो एकबारगी ऐसा लगा कि लोग पैनिक में हैं जल्दी जल्दी खरीद लो भईया पता नहीं कल मिले न मिले। पत्नियों के ज़रखरीद गुलाम पति तो बस खरीद करने का ज़रिया यानी द्रव्य उपलब्ध कराने भर को यूजफुल लग रहे थे। बोयफ्रेंड़ो की हालत भी कुछ बेहतर नहीं रही होगी. बेचारे... चलती-फिरती ए टी एम मशीन...बस। मुझे लगा अच्छा हुआ मैं न हुआबस हुआ-हुआ करता हुआ करने लगा हूँ ढेंचू-ढेंचू. और अब चर्र-मर्रजाऊंगा यूं ही मर.

हर रेस्तरां में खाने वाले लोग (हे भगवान मेरी नज़र ने उन्हें भी नहीं बख्शा!!) तो ऐसे लग रहे थे मानो सदियों से भूख से पीड़ित लोगों में ज्यादा खाना तेज़ खाने की रेस लगी हो।

खा खा खा
खामखा खा
खाने के लिए आ 
जा खा कर जा
खोल बैंक में खाता
खुल के खा
खाता जा
आता-जाता खा
बिल चुका
आ कल फिर आ
घर पर कुछ मत बना
कमा
कायम रहने के लिए चूरन खा
पेट खाली करके आ
और फिर खा
जब भी वो मिला
पिला
था खाने पे पड़ा पिला
जो भी मिला
गया खा
खिलखिला
खिला
खा खा खा
खाक में मिलने से पहले खा

रेस्तरां से निकाले गए नाकाम चूहे फ्लाई ओवरों पर चढ़ती-उतरती बस में हिचकोले खाने के कारण अपनी जगह से सरके मेरे आधे ग्लोबल पेट में शेयर बाज़ार में मंदी के कारण किसी मल्टीनेशनल के हाय-दैया करते हुए सी ई ओ की तरह बेचैनी में कुलबुला रहे थे. मैं घर जाकर दाल रोटी (क्या करूं मेरी फेवरेट डिश हई येई) खाने के लिए मरा जा रहा था।

बस जब रिंग रोड से होती हुई धौला कुआँ में दाखिल हुई तो लगा जैसे घर आ गया.  हालाँकि घर वहां से भी 15-20 किलोमीटर दूर होगा पर अब सड़कें और इमारतें जानी-पहचानी लगने लगीं.  यह भी सोचा जो लोग रोजाना अप-डाउन करते हैं वो क्या सोचते होंगे इस बारे में.  और जो लोग दिल्ली के उस हिस्से में रहते हैं वो जब कभी कभी इस तरफ आते होंगे तो कैसा लगता होगा उन्हें. शायद उनका इस तरफ आना ज्यादा होता होगा बनिस्पत दिल्ली के इस तरफ वाले लोगों के वहां जाना.

कमाल है उस तरफ और इस तरफ की दिल्ली का कंट्रास्ट और कैरेक्टर शहर की पूरी आब-ओ-हवा और चाल-ढाल मुझे बिलकुल अलग लगीं. यानि जगहों का रूप-रंगतेवर और मिज़ाज हर कुछ किलोमीटर के बाद बदल जाता है?

कुल मिलाकर अच्छा लगा।


                                                           बुधवार, 1 अगस्त 2012


सफर

ज़िंदगी तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

किसी शायर ने भी क्या खूब कहा है।
हम ज़िंदगी को एक सफर मानते आए हैं। एक ऐसा सफर जिसके दोनों छोर हमारी पहुँच से परे हैं, और पहुँच से दूर होने के कारण हम इन छोरों के बीच के दौर को हरचंद अपनी क़ैद में रखना चाहते हैं मगर वक़्त है कि मुट्ठी में से रेत की मानिंद फिसलता जाता है - फिसलता जा रहा है।

ज़िंदगी को एक सफर कहकर बयान किया है अक्सर बयान करने वालों ने। बंदा एक मुसाफिर समझे खुद को और एक सराय समझे दुनिया-ए-फानी को, तो ज़िंदगी की मुश्किलात कुछ आसान हो जाती हैं, ऐसा कहा है कहने वालों ने।  मगर सफर पर हमें जाने को जो चीज़ मजबूर करती है वो है ख़्वाहिश और जहां ख़्वाहिश है वहाँ लगाव है और जब लगाव है तो दिल आशना है इसी जहां से, यहाँ की रौनकों  से और बाज़ारों से। अजब गुंझल है। अगर दुनिया से मुहब्बत नहीं तो आगे बढ्ने की सूरत नहीं और अगर ख़्वाहिश लेकर चल पड़ें तो इसे दुनिया-ए-फ़ानी कहें तो क्योंकर?

बात ख़्वाहिश की तो बस इतनी-सी कही है कहने वालों ने:
दुनिया एक खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है
खो जाए तो सोना है।
इसलिए जो कुछ है हमारे पास उसे सहेजना चाहिए - हर कीमत पर।

दरअसल यह जो सफर है यह बहुत-सी मंज़िलों के राज़ खोल देता है।  दुनिया-ए-फ़ानी का नहीं यह सफर अपने अंदर का है।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीददार नहीं हूँ।

तो बात बस इतनी-सी है कि सफर चाहे खुद से मिलने की चाह में हो या कोह-ए-ख़्वाहिश के पार पुरअम्न वादी में उतरने के लिए - सफर बस जारी रहना चाहिए।  

                                                                                                               10 फरवरी 2013