बुधवार, 13 फ़रवरी 2013


जिस तरह चवन्नी और अठन्नी इतिहास बन चुकी हैं उसी तरह कुछ और सिक्के भी जो किसी जमाने में किसी सदी में कभी चला करते थे ज़ाहिर है नहीं रहे। आप खोजने जाइएगा तो कई किताबें भी कम पड़ेंगी। सोचा, थोड़ा-बहुत ही सही अपने दोस्तो को कुछ सिक्कों के बारे में बताया जाए। उनके बारे में जानना कम दिलचस्प नहीं।

कौड़ियों के दाम और फूटी कौड़ी जैसे शब्दों का इस्तेमाल हम अभी तक करते हैं। इनका इस्तेमाल तब बंद हुआ जब भारत सरकार ने बहुत कम कीमत वाले सिक्कों का चलन शुरू किया था।

तांबे का एक सिक्का था दमड़ी।  बातचीत में आज भी कभी कभी उसका इस्तेमाल होता है।  एक दमड़ी 25 कौड़ियों के बराबर या एक पैसे के बराबर होती थी। और छ्दाम 2 दमड़ी के बराबर माना जाता था। यह जो दाम शब्द है न जिसका इस्तेमाल हम आजकल कीमत के मानी में करते हैं। वो दमड़ी से भी छोटा था। यानि एक दमड़ी 3 दाम के बराबर थी। यह दाम शब्द सम्राट अकबर के समय में आया जिन्होंने बहलोली नामक एक सिक्के का नाम बदलकर दाम कर दिया था। हालांकि उस समय दाम के दम कुछ और ही रहा होगा। एक बहलोली का वज़न 1 तोला 8 माशा और 7 रत्ती होता था।

मुसलमानों के भारत में प्रथम आगमन के समय भारत में दिल्लीवाल नामक सिक्के का अधिक प्रचार था।      

यह जो रुपया शब्द है – कहते हैं इसका प्रचार सम्राट शेरशाह के समय से हुआ है।  

स्कॉटलैंड में एक छोटा-सा गाँव है पटना। इस पटना से बहकर भी एक नदी निकलती है जिसका नाम है दून नदी। इस नदी पर स्कॉटलैंड के प्रख्यात कवि राबर्ट बर्न्स ने 1791 में एक कविता लिखी थी जिसे आज भी गीत की तरह गया जाता है।  इस गाँव को ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय पटना में तैनात एक सेना अधिकारी के बेटे विलियम फुलटर्न ने खदान मजदूरों के लिए 1802 में बसाया था।
पटना प्राइमरी स्कूल के बच्चे भारत के पटना को जानते हैं। स्कूल में उन्हें दोनों पटना के संबंध में बताया जाता है।

तो अब और क्या कहें।  इस बार गर्मी की छुट्टियों में पटना घूमने का प्लान बनाइये।

अक्सर देखा जाता है कि घरों में टॉइलेट को सबसे कम अहमियत दी जाती है। इसकी अहमियत उन लोगों से पूछिए जिनके घरों में अभी भी शौचालय नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक खराब शौचालयों की वजह से बढ्ने वाली गंदगी के कारण विकासशील देशों में बड़ी गिनती में लोग बीमार पड़ते हैं। यह लोगो अक्सर वो होते हैं जो शायद किसी गिनती में ही न आते हों। संयुक्त राष्ट्र संघ का यह भी आकलन है कि इसकी वजह से हर साल लगभग 15 लाख बच्चों की मौत हो जाती है।

इसलिए कुछ लोगों ने न सिर्फ साफ सुथरे टॉइलेट की अहमियत को समझा है बल्कि हर चीज़ को खूबसूरत बनाने की अपनी आदत के मुताबिक टॉइलेट को भी एक कला में तब्दील कर दिया है।

अब देखिये न पश्चिम में तो एक ऐसा शौचालय बना दिया गया है जहां माइक्रोवेव ऊर्जा की मदद से मल को बिजली में तब्दील किया जा सके।

कभी समय मिले तो दिल्ली की पालम–डाबरी सड़क पर महावीर एंक्लेव के सुलभ इंटरनेशनल टॉइलेट म्यूज़ियम जाइए। आपको कई फ़ैन्सी आकार के टॉइलेट दिखेंगे कि आप कहेंगे वाह!  यहाँ टॉइलेट की विकास यात्रा के बारे में भी जान सकते हैं। यह यात्रा शुरू होती है ईसा से ढाई हज़ार साल पहले से और आधुनिक तकनीकी युग में आ धमकती है पूरे ज़ोर-शोर से।

चित्त रंजन पक्रषी यह नाम है एक ऐसे कलाकार का जो जीवन के 92 वसंत देख चुका है और जिसने पिछले पचास से भी ज़्यादा वर्षों के दौरान डाक टिकटों के डिज़ाइन बनाए हैं।

डाक टिकटों को इकट्ठा करने के शौक अब भी बहुतों को है। लेकिन हम अक्सर उसे बनाने वाले उसकी परिकल्पना करने वाले आर्टिस्ट के बारे में नहीं जानते।  चित्त रंजन पक्रषी ने भारत के लिए ही नहीं बल्कि कुछ और देशों के लिए भी यादगारी डाक टिकिट डिज़ाइन किए हैं। उन्होने अपनी पहली डाक टिकिट 1956 में बुद्ध जयंती के ढाई हज़ार वर्ष पूर्ण होने पर डिज़ाइन की थी जिसे पूरे भारतवर्ष में करवाई गई एक प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला था। उस टिकिट के लिए तब उन्हें एक हज़ार रुपए पुरस्कार स्वरूप दिये गए थे।  1973 में बांग्लादेश के प्रथम संसद अधिवेशन के मौके पर भारत की ओर से जारी एक यादगारी डाक टिकिट को भी चित्त रंजन पक्रषी ने ही डिज़ाइन किया था।

उनके द्वारा परिकल्पित डाक टिकटों की सूची काफी लंबी है। उन्होंने महात्मा गांधी के जन्म की सौंवी वर्षगाँठ पर भी यादगारी डाक टिकट डिजाईन किया था। आजकल वे लेखन भी कर रहे हैं।

कहते हैं कि एक जगह एक प्रतियोगिता हो रही थी चार्ली चैपलिन जैसा दिखने की। खुद चार्ली चैपलिन उस प्रतियोगिता में तीसरे नंबर पर आए थे।

चार्ली चैपलिन के ऐसे ही दीवानों में एक हैं बिहार के मुंगेर ज़िले के राजन कुमार।  वे मंच पर चार्ली चैपलिन की भूमिका निभाते हैं और ऐसे तीन हज़ार से भी ज़्यादा शौस में कुल 11 हज़ार घंटे मंच पर चार्ली चैपलिन की भूमिका निभाने के कारण उनका नाम लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल किया गया। वे अफ़्रो-एशियाई खेलों के लिए शुभंकर भी रहे है। कभी आल इंडिया रेडियो में युववाणी से जुड़े रहे राजन कुमार ने पश्चिम बंगाल का पुरुलिया छउ नृत्य भी सीखा है। एफ एम गोल्ड की ओर से इस खरे कलाकार को चमकते भविष्य के लिए शुभकामनाएँ।

सुनते हैं इक गीत और वापस आकर बताएँगे आपको के छत्तीसगढ़ की एक महिला फुलवासन ने अपनी और कई और महिलाओं की ज़िंदगी कैसे बदल दी।

एक गरीब परिवार में पैदा हुई फुलवासन का सपना था कि वो पढ़ लिख कर नौकरी करे। लेकिन उनके पिता अपनी खराब आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें कक्षा पाँच तक ही पढ़ा पाए। 13 साल की उम्र में ही उनका विवाह हो गया। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के सुकुलेदेहान गाँव में पति के साथ ही वह भी बकरियाँ चराने लगी। लेकिन वो यह काम करना नहीं चाहती थी। सो उन्होने जिलाधिकारी की पहल पर अपने गाँव की दस गरीब महिलाओं को जोड़ कर एक स्वयं सहायता समूह बनाया। इस कदम का विरोध उनके घर में ही शुरू हो गया और पति ने मारपीट करते हुए उन्हें घर से निकाल दिया।

दोस्तो, आज फुलवासन यादव के स्वयं सहायता समूह से दस लाख महिलाएं जुड़ चुकी हैं। फुलवासन के पति आज भी बकरियाँ चराते हैं और फुलवासन महिलाओं के विकास के लिए अपना जीवन अर्पण कर चुकी हैं। उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने पिछले वर्ष उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया।

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