मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

सफर

ज़िंदगी तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

किसी शायर ने भी क्या खूब कहा है।
हम ज़िंदगी को एक सफर मानते आए हैं। एक ऐसा सफर जिसके दोनों छोर हमारी पहुँच से परे हैं, और पहुँच से दूर होने के कारण हम इन छोरों के बीच के दौर को हरचंद अपनी क़ैद में रखना चाहते हैं मगर वक़्त है कि मुट्ठी में से रेत की मानिंद फिसलता जाता है - फिसलता जा रहा है।

ज़िंदगी को एक सफर कहकर बयान किया है अक्सर बयान करने वालों ने। बंदा एक मुसाफिर समझे खुद को और एक सराय समझे दुनिया-ए-फानी को, तो ज़िंदगी की मुश्किलात कुछ आसान हो जाती हैं, ऐसा कहा है कहने वालों ने।  मगर सफर पर हमें जाने को जो चीज़ मजबूर करती है वो है ख़्वाहिश और जहां ख़्वाहिश है वहाँ लगाव है और जब लगाव है तो दिल आशना है इसी जहां से, यहाँ की रौनकों  से और बाज़ारों से। अजब गुंझल है। अगर दुनिया से मुहब्बत नहीं तो आगे बढ्ने की सूरत नहीं और अगर ख़्वाहिश लेकर चल पड़ें तो इसे दुनिया-ए-फ़ानी कहें तो क्योंकर?

बात ख़्वाहिश की तो बस इतनी-सी कही है कहने वालों ने:
दुनिया एक खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है
खो जाए तो सोना है।
इसलिए जो कुछ है हमारे पास उसे सहेजना चाहिए - हर कीमत पर।

दरअसल यह जो सफर है यह बहुत-सी मंज़िलों के राज़ खोल देता है।  दुनिया-ए-फ़ानी का नहीं यह सफर अपने अंदर का है।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीददार नहीं हूँ।

तो बात बस इतनी-सी है कि सफर चाहे खुद से मिलने की चाह में हो या कोह-ए-ख़्वाहिश के पार पुरअम्न वादी में उतरने के लिए - सफर बस जारी रहना चाहिए।  

                                                                                                               10 फरवरी 2013

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