24 फरवरी 2013
न जाने ऐसा क्यूं है कि हम हमेशा बेचैन रहते हैं, बेकरार रहते हैं। अक्सर हमें मालूम होता है कि हमारी बेक़रारी की, हमारी बेचैनी की वजह क्या है। हमें लगता है कि हमारी बेचैनी उस वजह के ख़त्म होने से या उस ज़रुरत को या मंजिल को पा लेने से ख़त्म हो जाएगे मगर हम जानते हैं फिर से हम बेकरार हो उठते हैं। कुछ और हसरतें कुछ और चाहतें सिर उठाने लगती हैं और बेक़रारी हम पे तारी होती जाती है।
इस बेचैनी, इस बेक़रारी का आलम हर वक़्त क्यों बना रहता है क्या कभी इसकी वजह ढूँढने की फुर्सत मिली है आपको?
जो बेचैन रूहें अभी भी जिस्मों की हदों में क़ैद करवट बदल रही हों और नींद जिन जिस्मों से अभी भी कोसों दूर हो, या यूं कहें कि जिन्हें सोने से पहले अख्तर-ए -सहर को या सुबह के तारे को देख लेने की चाह हो - उनको कहीं-न-कहीं एहसासात की गहराइयों में यह इल्म ज़रूर होगा कि ये बेक़रारी दरअसल उस महबूब से मिलने की है जिससे जुदा हुए एक उम्र गुज़र चुकी है।
अगर कोई रहबर मिल जाता तो उस राह का मुसाफिर बना देता हमें, उसका पता देता हमें और हम चलते जाते, जलते जाते, इस तरह यह बेक़रारी ख़त्म हो जाती।
न जाने ऐसा क्यूं है कि हम हमेशा बेचैन रहते हैं, बेकरार रहते हैं। अक्सर हमें मालूम होता है कि हमारी बेक़रारी की, हमारी बेचैनी की वजह क्या है। हमें लगता है कि हमारी बेचैनी उस वजह के ख़त्म होने से या उस ज़रुरत को या मंजिल को पा लेने से ख़त्म हो जाएगे मगर हम जानते हैं फिर से हम बेकरार हो उठते हैं। कुछ और हसरतें कुछ और चाहतें सिर उठाने लगती हैं और बेक़रारी हम पे तारी होती जाती है।
इस बेचैनी, इस बेक़रारी का आलम हर वक़्त क्यों बना रहता है क्या कभी इसकी वजह ढूँढने की फुर्सत मिली है आपको?
जो बेचैन रूहें अभी भी जिस्मों की हदों में क़ैद करवट बदल रही हों और नींद जिन जिस्मों से अभी भी कोसों दूर हो, या यूं कहें कि जिन्हें सोने से पहले अख्तर-ए -सहर को या सुबह के तारे को देख लेने की चाह हो - उनको कहीं-न-कहीं एहसासात की गहराइयों में यह इल्म ज़रूर होगा कि ये बेक़रारी दरअसल उस महबूब से मिलने की है जिससे जुदा हुए एक उम्र गुज़र चुकी है।
अगर कोई रहबर मिल जाता तो उस राह का मुसाफिर बना देता हमें, उसका पता देता हमें और हम चलते जाते, जलते जाते, इस तरह यह बेक़रारी ख़त्म हो जाती।
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